Saturday, June 12, 2010

दिल कि दिल से दिल्लगी



दिल में कोई मलाल नही पर रंजिश तो है,
चाहत उसकी जिसे कहते सब मंज़िल है
मंज़िल का पर हाय विरुद्ध विधाता
इस जगत में कोई अस्तित्व तो होता
यह तो बन जाती एक पायदान
जिस पर पड़ते ना पड़ते ये कदम नादान
भरोसा जिस पर किया सोचा की ठोस धरती
पर निकल गयी वह तो दलदल भरी मिट्टी
उछलता तो सतह पर पहुँचता
अंदर ही गिरता धँसता ही जाता
उड़ान उपर ही भरनी चाही पर पहुँच पाया
धरती माता के सीने में और ही समाया
तब फिर अपने को समझाया कि ये साया
जिसने मुझे जकड़ा मोह से भरमाया
इसमे भी एक आनंद है अनूठा
जिसने मुझे आलिंगन किया जब जाग सारा रूठा
अब बुझती जाती चाहत की ये आग
सारी भावनाओं के एकाकार का ये राग
विस्मृत करना चाहता सभी प्रकार के राग अनुराग
ताकि बस रहे शून्य और विराग
ठेस हर्ष अलाप विलाप मोह द्वेष
और भावनाओं का अतिरेक कर देना चाहता शेष
मैं स्थिर लेकिन चंचल मन अति तीव्र अस्थिर
तो मैं ले चला मॅन कही था जहाँ फिर
फिर सोचा समझा कुछ क्षणिक निष्कर्ष निकाला
ये फेर है सब मन का और इसी की है ज्वाला
मन मस्तिष्क ही तो चलता करता कराता
हम है वही जो क्षण में ये सोच पाता
तो ठीक है चलो इसमे तो परिवर्तन की नही है आवश्यकता
क्युकि यही तो है मात्र परिवर्तन का स्त्रोत बन पाता
ढाढ़स तसल्ली मिलती की कुछ तो है जिसे नही बदलना
नये नये भावों के इस अजायबघर से है निकलना
कुछ एक जो मुझे दे पाए अनुरक्त होने का बहाना
बस अनुरक्त होने का बहाना,बस अनुरक्त होने का बहाना |

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